दी ज्यॉग्राफिकल पॉइवट ऑफ हिस्टरी (The Geographical Pivot of History)
HJ Mackinder, The Geographical Journal, Vol. 23, No. 4 (April 1904), 421-437.
अनुवादकः डा. अम्बरीष ढाका
इतिहासकार भविष्य में वर्तमान युग को पलट कर देखेंगे, तो वे विगत के चार सौ वर्षों को कोलंबियाई युग घोषित करेंगे, जिसका अंत 1900 में मान लिया जाएगा । हाल ही में यह माना जाने लगा है कि भौगोलिक खोजें लगभग पूरी हो चुकी हैं तथा अब भूगोल को सघन सर्वेक्षण व चिंतनात्मक बोध की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए । इन चार सौ वर्षों में विश्व का मानचित्र लगभग हूबहू बना लिया गया है । धर्म प्रचारक, आक्रमणकारी, कृषक, खनिक एवं यांत्रिक सभी भूगोलवेत्ताओं का अनुसरण करते हुए विश्व के सुदूर कोनों की अभूतपूर्व जानकारी प्रस्तुत की है, जो कि विश्व के राजनैतिक मानचित्र की व्याख्या के प्रस्तावना का काम करती है । यूरोप, उत्तरी अमरीका, दक्षिण अमरीका, अफ्रीका तथा आस्ट्रेलेशिया में शायद ही ऐसा क्षेत्र बचा हुआ है, जिस पर स्वामित्व सभ्य व अर्ध-सभ्य शक्तियों के मध्य युद्ध के बिना किया जा सके ।एशिया में भी इस खेल के अंतिम चरण देखे जा सकते हैं, जिसकी शुरुआत कजाख यरमाक व वास्को द गामा ने की । सार शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कोलंबियाई युग की प्रमुख विशेषता उससे पूर्ववर्ती युग की तुलना में थी कि यूरोप का विस्तार बिना किसी बडी रुकावट के हुआ । जबकि मध्यकाल के इसाई धर्म क्षेत्र का अस्तित्व एक संकरे भाग में सीमित था, जिस पर सदैव बाह्य आक्रमण का खतरा बना रहता था । वर्तमान युग में भी एक बार फिर हमें ऐसे राजनैतिक तंत्र का सामना करना पड सकता है, जिस का प्रभाव इस बार विश्व व्यापक होगा । ऐसा कोई भी सामाजिक उद्वेलन जिसका प्रभाव सुदूर तक जाता हो, उसका परावर्तन विश्व के कोनों से टकरा कर लौटेगा । इस आवक-जावक में जो क्षीण राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्थाएं होंगी, वे तार-तार हो जाएंगी । बम का मिट्टी के बंध पर गिरना व उसके एक इमारत पर गिरने के भिन्न प्रभाव होते हैं । अतः इसका बोध वर्तमान राजनीतिकारों को इस बात के लिए आकर्षित कर रहा है कि वे क्षेत्रीय विस्तार के बजाय तुलनात्मक कुशलता पर अधिक ध्यान दें ।
इस प्रकार पहली बार ऐसा प्रतीत होता है कि वृहत्तम भौगोलिक व वृहत्तम ऐतिहासिक सामान्यीकरण के मध्य समरसता का प्रतिभास होता है । पहली बार हमें घटनाचित्रों के सही आयामों का ज्ञान हुआ है, तथा ऐसे सिद्धांत की स्थापना की जा सकती है, जो विश्व इतिहास में भौगोलिक कारकों के कुछ पहलुओं पर प्रकाश डाल सकते हैं । बेहतर होगा यदि ऐसे सिद्धांत वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति प्रतिस्पर्धा के बारे में प्रकाश डाल सके । आज सायंकाल में ऐसे भौगोलिक स्वरूपों को इंगित करुंगा, जो कि मानव गतिविधि को सर्वाधिक प्रभावित करते रहे हैं । तथा ऐसे प्रभाव से संबंधित इतिहास को भी चिह्नित करने का प्रयास करुंगा । यहाँ मेरा उद्देश्य भौतिक लक्षणों के स्थानिक प्रभाव की व्याख्या करना नहीं है । अपितु मानव इतिहास को विश्व संरचना के अंग के रूप में प्रस्तुत करना है । यहाँ मेरा उद्देश्य अतिभौतिकवाद से प्रभावित व्याख्या करना भी नहीं है । मानव प्रारंभ करता है, प्रकृति नहीं, परंतु प्रकृति नियंत्रणकारी है । यहाँ ऐतिहासिक कारकों को नहीं, अपितु भौतिक कारकों के नियंत्रणकारी प्रभाव को समझना है । मैं अपने आलोचकों के प्रति विनम्र रहूँगा ।
दिवंगत प्रोफेसर फ्रीडमैन यह मानते रहे कि सिर्फ भूमध्य व यूरोप की जातियों के इतिहास ही इतिहास हैं । यह एक प्रकार से सत्य भी है, क्योंकि इन्हीं जातियों में वे विचार उत्पन्न हुए, जिन्होंने यूनान व रोम को विश्व में श्रेष्ठ सिद्ध किया । परंतु यह एक सीमितता भी है । यह इस प्रकार है कि राष्ट्र निर्माण का विचार स्वतः ही नहीं जनित होता है । यह प्रायः समान आवश्यकता के रूप में बाह्य शक्ति के विरुद्ध एकजुट समान संकट का हल है । इंग्लैण्ड की उत्पत्ति का विचार हैप्टार्की के मन में डैनिश व नॉर्मन आक्रांताओं ने भरे । फ्राँस का विचार फ्रैंक, गोथ व रोमनों के मध्य हूणों ने चालौन में भरा, तथा इंग्लैण्ड से सौ वर्षीय युद्ध ने भरा । इसाईजगत का विचार रोमन अत्याचार के परिणामस्वरूप आया, तथा धर्मयुद्ध के चलते परिपक्व हुआ । संयुक्त राज्य अमरीका का विचार एक लंबे स्वतंत्रता युद्ध के पश्चात् स्वीकार किया गया व स्थानीय औपनिवेशिक मानसिकता खत्म हूई । जर्मन साम्राज्य का विचार दक्षिण जर्मनी ने अंततोगत्वा स्वीकार किया, वह भी फ्राँस के विरुद्ध उत्तरी जर्मनी के साथ एकजुट संघर्ष के बाद । जो इतिहास की व्याख्या मैं यहाँ कर रहा हूँ, वह सभ्यताओं के उद्गम व उनके स्त्रोत में विचार का बोध है । परंतु इस बोध में अनेक मौलिक प्रक्रम जिनके चलते यह विचार उत्पन्न हूए, उन पर प्रकाश डालना आवश्यक है । एक विरोधपूर्ण व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण सामाजिक प्रकार्य अपने शत्रुओं में एकता लाना भी है । ऐसे ही बाह्य बर्बरता के परिणामस्वरूप यूरोप ने अपनी सभ्यता के मानदण्डों को प्राप्त किया । कुछ मायनों में यूरोप व युरोपीय इतिहास को एशिया व एशियाई इतिहास का अनुगामी माना जाना चाहिए, क्योंकि दरअसल, यूरोपीय सभ्यता वास्तविक अर्थों में एशियाई आक्रमण के विरुद्ध निष्पक्ष संघर्ष का परिणाम है ।
यूरोप के राजनैतिक मानचित्र का सबसे विरोधाभासी पहलू यह है कि इसके आधे से अधिक भाग में रूस का विस्तार है, तथा दुसरे भाग में छोटे-छोटे क्षेत्रों में पश्चिमी शक्तियाँ विद्यमान हैं । भौतिक दृष्टि से भी यह विरोधाभास झलकता है । पूर्व में निम्न भूमि का निरंतर विस्तार तथा इसके विपरीत पर्वतों, घाटियों, द्वीपों व प्रायद्वीपों से समृद्ध पश्चिमी क्षेत्र । प्रथम दृटयाः यह प्रतीत होता है कि प्राकृतिक पर्यावरण एवं राजनैतिक संगठन में संबंध है, जो कि इतना स्वाभाविक है कि चर्चा के आवश्यक नहीं है । यदि हम ऑक्सफोर्ड एटलस के ऐतिहासिक मानचित्रों को देखें, तो पूर्वी यूरोप के मैदान का यूरोपियाई रूस के साथ संयोजन गत सौ वर्षों में संयोग मात्र नहीं है । इसके विपरीत विगत में दो राज्य समूह पूरे देश को उत्तरी व दक्षिणी राजनैतिक तंत्रों में बाँटे हुए थे । उच्चावचन का मानचित्र उस भौतिक विसंगति को नहीं दर्शाता है, जिसके चलते मानव के गमन-पथ एवं अधिवास रूस में विशेष रूप से प्रभावित हूए । काले सागर के समीप मई व जून में वर्षा होती है, तथा बाल्टिक व श्वेत सागर के समीप यह जुलाई व अगस्त में होती है । इस समय दक्षिणी भाग में सूखा पङ रहा होता है । इस जलवायु प्रकार के दो प्रभाव क्षेत्र निर्मित हैं, जो कि उत्तर में वन व दलदल से लक्षित हैं तथा दक्षिण में स्टेपी घास के अंतहीन मैदान के रूप में परिलक्षित हैं । इन दोनों को विभाजन करने वाली रेखा उत्तर पूर्वी दिशा में कार्पेथियाई के उत्तरी सिरे से युरॉल के दक्षिणी छोर तक जाती है । मास्को इस रेखा के थोङा उत्तर में स्थित है । रूस के पश्चमोत्तर भाग में इस विभाजक रेखा के वन पूर्वी यूरोप के मध्य भाग (बाल्टिक व काले सागर के बीच) में से होते हुए जाती है । पश्चिमी यूरोप में यह वन विस्तार जर्मनी के उत्तर भागों में फैल जाते हैं, तथा स्टेप घास के मैदान ट्रांसवाल व कार्पेथिया की ओर घूमते हुए, डैन्यूब तक व रुमानिया के मैदान व लौह द्वार तक फैले हैं । घास के मैदान का अलग क्षेत्र, जो कि पुस्टाज के नाम से जाना जाता है, तथा हंगरी के मैदान से चिह्नित है, कार्पेथियाई व अल्पाईन पर्वतों की वनाच्छादित परिधि से परिभाषित है । यद्यपि रूस के पश्चिम में वनों कि कटाई व दलदली क्षेत्रों के भराव से यह द्वि-लक्षण विभेद अब निष्प्रभावी रह गया है ।
प्रारंभिक रूस व पोलैण्ड इन वनों के मध्य खुले भागों में बसे थे । उधर स्टेपी के एशियाई सुदूर से, कैस्पियन सागर व यूराल पर्वतों के बीच द्वार से, पाँचवी सदी से सोलहवीं सदी तक, तूरानी खानाबदोश जातियाँ आईं, जिनमें कि हूण, ऐवार, बुल्गारियाई, माग्यार, खजार, पात्जिनाक, कुमान, मंगोल, काल्मुक आदि थे । उन्होंने एट्टिला हूण के नेतृत्व में डैन्यूब के स्टेपी वाले भाग में, पुस्टाज में डेरा डाला, तथा यूरोप में उत्तरी, दक्षिणी व पश्चिमी ओर धावा बोल कर अधिवासित जातियों पर आक्रमण किया । आधुनिक इतिहास का एक बडा भाग इन आक्रमणों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रभावों की समीक्षा के रूप में लिखा जा सकता है । एंजेल्स व सैक्सन, हो सकता है कि ऐसे आक्रमणों के चलते सागर पार करने को विवश हो गये हों, जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन में इंगलैण्ड की स्थापना हुई हो । या फ्रैंक, गॉथ व रोमन प्रातों को एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खडा होने की आवश्यकता लगी हो, ताकि चैलोन की युद्ध भूमि में एशियाई ताकतों के विरुद्ध एकजुट हो कर मोर्चा लिया जा सके और परिणामस्वरूप आधुनिक फ्राँस का जन्म हुआ । वेनिस का जन्म एक्विला व पादुआ के अंत के बाद हुआ । यही नहीं बल्कि पोप लियो की प्रतिष्ठा एट्टिला हूण से मिलान में समझौते के बाद बढी । कुछ इस प्रकार का परिणाम इन क्रूर व अविवेकी घुडसवारों के निर्बाध रूप से हमलों से हुआ, जैसे कि मानो एक एशियाई हथौडा चहुँओर खाली स्थान पर स्वच्छंद रूप से वार कर रहा हो । हूणों के बाद एवार आये । ऐसे आक्रमणों के विरुद्ध ऑस्ट्रिया का जन्म हुआ । वियना का सुदृढीकरण चार्लेमैग्ने के अभियानों से हुआ । तत्पश्चात मग्यार आये, जिनका आधार हंगरी था तथा उनके निरंतर आक्रमण से ऑस्ट्रिया का महत्व पूर्व में सुरक्षा चौकी के रूप में बढा । जिसने जर्मनी के राजनैतिक केंद्र-बिंदु को पूर्व की ओर खिसका दिया । बुल्गारियाईयों ने डैन्यूब के दक्षिण में अधिपत्य स्थापित किया । इसका यद्यपि नाम जीवित है, परंतु भाषा पर उसके स्लाव जन का प्रभाव आ गया । रूसी स्टेपी पर सबसे लंबा आधिपत्य खजार शासकों का रहा । अरब भूगोलविद कैस्पियन सागर को खजार सागर के रूप में जानते थे । इसके बाद नये मंगोल जाति समूह आक्रमण करने आये, तथा रूस का उत्तरी वनीय भाग किपचाक के मंगोल खान के अधीन रहा । अतः स्टेप और रूस का विकास इस प्रकार पिछडा रहा जब बाकि का यूरोप प्रगति कर रहा था ।
यह याद रखने योग्य है कि उत्तरी वनों से काले व कैस्पियन सागर तक जाने वाली नदियाँ, स्टेप को समकोण पर काटती हैं । समय-2 पर इसके अनुरूप गतिविधि होती रही है, जो कि घुड़सवारों की गतिविधि के समकोण रही है । इस प्रकार ग्रीक इसाई धर्म ड्नीपर के सहारे कीव तक गया, जैसे कि नार्स वारंगियन्स उसी नदी के सहारे उत्तर से दक्षिण की ओर कुस्तुनतुनिया तक आये । इससे भी पूर्व ट्यूटोनिक गॉथ का गमन ड्नीस्टर नदी के सहारे बाल्टिक सागर से दक्षिण-पूर्वी यूरोप तक रहा था । परंतु ये संक्षिप्त अध्याय हैं, जो कि वृहत्तर सामान्यीकरण को झुठलाते नहीं हैं । लगभग एक हजार सालों तक घुडसवारों के दल एशिया से आते रहे, दक्षिण रूस के द्वार से प्रवेश कर हंगरी को अपना पडाव स्थल बनाया, जो कि यूरोपीय प्रायद्वीप के हृदय में स्थित है । जिनका विरोध रूसी, जर्मनों, फ्रेंच, इतालवियों व बैजंटाईन ग्रीकों की ऐतिहासिक आवश्यकता थी । इन सब ने एक स्वस्थ्य प्रभाव उत्पन्न किया, वह इसलिए क्योंकि स्टेप जो कि उनकी तीव्र गतीयमानता के आधार थे, युरोप में वनों व पर्वतों द्वारा स्थानापन्न थे ।
इनकी तुलना में वाईकिंग्स ही शक्तिशाली थे, जो कि नौकाओं का प्रयोग करते थे । स्कैण्डिनेविया से उत्तर व दक्षिण यूरोप तट की ओर बढते हुए वे मुहानों से मुख्य भूमि में प्रवेश करते थे । परंतु उनकी प्रभाव क्षमता तटीय क्षेत्रों तक ही सीमित थी, क्योंकि वे जलावर्ती थे । इस प्रकार यूरोप की निवासित जनता के समक्ष दो निरंतर खतरे थे- एक तरफ, एशिया के खानाबदोश जो कि पूर्व से आ रहे थे, तो दूसरी तरफ, तीन ओर से समुद्री लुटेरों से घिरे हुए थे । यह दोनों ही प्रभाव असीमित परिवर्तन वाले नहीं थे, अपितु इनसे सकारात्मक उर्जा ही प्राप्त हुई । यह ध्यान देने योग्य है कि इंग्लैण्ड व फ्राँस दोनों ने ही खानाबदोश व स्कैण्डिनेवियाई आक्रमणकारियों से निपटने के लिए एक इकाई के रूप में विकसित होने की आवश्यकता महसूस की, जबकि इटली इन्हीं प्रभावों के चलते टूट गया । प्राचीन काल में रोम की शक्ति संचालन का एक बडा़ आधार सङकें थी, जो कि उसके अधीन जनता के संचालन में महत्वपूर्ण थीं, कालांतर में इनके ह्रास के बाद अठ्ठारहवीं शताब्दी में ही इनका पुनर्निर्माण हो पाया ।
यह संभव है कि हूणों का आगमन ही पहला एशियाई आगमन नहीं था । होमर व हेरोडॉटस के विवरणों में जिन सीथियनों का वर्णन है, जो कि घोङी का दूध पीते थे, शायद स्टेप के मैदानों पर हूणों के पूर्वगामी थे । इसी प्रकार डोन, डोनेट्ज, ड्नीपर, ड्नीस्टर तथा डैन्यूब नदियों के नाम उन लोगों की शायद पहचान है, जो कि एक जाति के भले ही न हों परंतु एक समान आदतों से पोषित थे । और यही नहीं, यह आवश्यक नहीं है कि गॉथ व वैरंगियन्स की तरह सैल्टिक लोग भी उत्तरी वनों से आये हों । मानवशास्त्रियों का मानना है कि यूरोप की ब्रैकी-सैफालिक जनसंख्या जो कि विभाजक समूह के रूप में चिह्नित है, एशिया मूल के ब्रैकी-सैफालिक जन समूह द्वारा मध्य यूरोप से फ्राँस की ओर धकेली गई है, तथा उनकी उपस्थिति उत्तर, दक्षिण व पश्चिम यूरोप की डोलिको-सैफालिक जनसंख्या के मध्य एशियाई उपस्थिति को दर्शाती है ।
एशियाई प्रभाव का संपूर्ण मूल्यांकन पंद्रहवीं शताब्दी के मंगोल आक्रमण के बिना अधूरा है । इससे पहले कि हम इन महत्वपूर्ण पक्षों की चर्चा करें, यहाँ यूरोप से परे प्राचीन विश्व की ओर मुख करना होगा ताकि इस तथ्य का भौगोलिक दृष्टिकोण संपूर्ण रूप से समझा जा सके । यह स्वाभाविक है कि चूंकि वर्षा सागर से उत्सर्जित है, अतः भू-भागों के केंद्र में उसका प्रभाव क्षीण होगा, तथा वे शुष्क होंगे । अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि विश्व की दो तिहाई जनसंख्या महाद्वीपों के तटीय क्षेत्रों में ही निवास करती है- चाहे वह यूरोप के अटलांटिक तट हों, इंडीज व चीन, इसके अतिरिक्त हिंद व प्रशांत महासागर के तट । एक विशाल निर्बाध पेटी, जो कि मानव निवास से मुक्त है, जहाँ वर्षा नगण्य है, वह सहारा के रूप में उत्तरी अफ्रीका से लेकर अरब प्रायद्वीप तक फैली है । मध्य एवं दक्षिण अफ्रीका इससे यूरोप व एशिया से कटे हुए थे, जैसे कि अमरीका व आस्ट्रेलिया महाद्वीप । सहारा एक रूप में यूरोप की दक्षिणी सीमा के रूप में स्थित था, ना कि भूमध्य सागर । यह मरुस्थल ही है जो कि श्वेत मानव को अश्वेत मानव से अलग करता है । यूरोप-एशिया की भूमि २१ मिलियन वर्ग मील विस्तृत है, जो कि विश्व की कुल भूमि का आधा है, यदि सहारा व अरब मरूस्थल को इसमे न गिना जाए । यद्यपि ऐसे अनेक मरुस्थल हैं, जो कि एशिया में सीरिया, ईरान से उत्तर-पूर्वी मंचूरिया तक छितरे हुए हैं, परंतु सहारा के समान एक इकाई के रूप में इतना विशाल विस्तार नहीं है । इसके विपरीत यूरोप-एशिया में अपवाह तंत्र का बङा विकसित स्वरूप देखने को मिलता है । इसके विशाल भू-भाग पर मध्य व उत्तर में नदियों का प्रयोग जलमार्गों के लिए नहीं किया जा सकता है । वोल्गा, ऑक्सस, जाक्सटरस खारी झीलों में परिवर्तित हो जाती हैं । ओब, येनिसी व लेना उत्तर में बर्फ के मुहानों में बंद हो जाती हैं । यह विश्व की छह महानतम नदियों में से हैं । यहाँ अन्य छोटी नदियाँ जैसे कि तारिम व हेलमाँड जैसी नदियाँ भी है, जो कि सागर तक नहीं पहुँच पाती हैं । इस प्रकार यूरोप-एशिया का हृदय-स्थल यद्यपि कुछ मरुस्थलीय टुकङों से चिह्नित है, फिर भी यह एक वृहद स्टेप मैदान है । यह एक विशाल चारागाह के समान है, जिसका कि सागर तट से संपर्क नहीं है । अन्य शब्दों में यह विशाल क्षेत्र ऐसी परिस्थिति प्रदान करता है, जिस पर एक विस्तृत जनसंख्या जीवनाधार तय कर सकती है, यह जनसंख्या और कोई नहीं बल्कि घुङसवारों व ऊँटसवारों वाली खानाबदोश जाति की ही हो सकती है । उनका क्षेत्र उत्तर में शीत-कटिबंधीय वनों व दलदल से निर्धारित है । जहाँ कि जलवायु अधिक कठोर है, सिर्फ उसके पश्चिमी व पूर्वी छोर पर कृषि की संभावना है । जिससे कृषि आधारित समाजों की व्यवस्था स्थापित हो सकती है । पूर्व में वनों का विस्तार प्रशांत तट के समीप दक्षिणवर्ती होता चला जाता है, जहाँ अमूरलैण्ड व मंचूरिया स्थित हैं । इसी प्रकार प्रागैतिहासिक यूरोप में वन ही सर्वत्र व्याप्त थे । इसी प्रकार उत्तर, उत्तर-पूर्व व पश्चिम में तीन तरफ से बंधे हुए, हंगरी के पुस्टाज से मंचूरिया के गोबी मरुस्थल तक लगभग 4000 मील तक स्टेप का विस्तार था । सिर्फ पश्चिम में नदियों के अलावा, बाकि स्टेप में समुद्र से जोडने वाली नदियों का अभाव था । यद्यपि वर्तमान में ओब, येनिसी को जोडने का प्रयास किया गया है, परंतु उसे यहाँ नहीं गिन रहे हैं । यूरोप, पश्चिम साइबेरिया, व पश्चिमी तुर्किस्तान में स्टेप भूमि निम्नतल है, व कई स्थानों पर समुद्रतल से भी नीचे है । पूर्व में मंगोलिया की ओर यह पठारीय भूमि पर आच्छादित है । यद्यपि यह उच्चावचन जो कि शुष्क हृदय-स्थल पर नग्न निम्न उच्चतर पर्वत श्रंखला के रूप में दिखाई पङता है, शायद ही कोई बाधा उत्पन्न करता है ।
वे कटक जो कि चौदहवीं शताब्दी के मध्य में यूरोप में आये, मंगोलिया के तीन हजार मील विस्तृत स्टेप को पार करके आये । पोलैण्ड, सिलेसिया, मोराविया, हंगरी, क्रोशिया तथा सर्बिया में जो विध्वंसकारी घटनाएं हूई, उसके सुदूरतम व परावर्तनीय परिणाम पूर्व के खानाबदोश चंगेज खान के नेतृत्व से जुङे हुए हैं । स्वर्ण कटक का आधिपत्य किपचाक के स्टेप पर था, जिसका विस्तार अरल सागर से यूराल व कैस्पियन के मध्य से होता हुआ कार्पेथियाई पर्वत श्रंखला के आधारतल तक था । जबकि अन्य कटक, जिसका स्वामी इलखान था, उसका विस्तार दक्षिण-पश्चिम में कैस्पियन व हिंदुकुश के मध्य से ईरान, ईराक व सीरिया तक फैला था । एक तीसरे कटक ने उत्तरी चीन पर आक्रमण कर कैथे पर आधिपत्य जमा लिया था । भारत, मैंगी तथा दक्षिणी चीन का बचाव तिब्बत के रूप में अतुलनीय बाधा से हुआ । एक ऐसी बाधा जिसके आयामों की तुलना सहारा मरुस्थल व ध्रुवीय बर्फ से ही की जा सकती है । यद्यपि तदुपरांत मार्को पोलो के काल में मैंगी में, व भारत में तिमूर के काल में इस बाधा को घूम कर पार कर लिया गया था । इस प्रकार प्राचीन विश्व की निवासित परिधि में इस विस्तारपूर्ण शक्ति का प्रभाव महसूस किया जो कि स्टेप से उत्पन्न थी । रूस, ईरान, भारत व चीन या तो अनुपालक बना लिए गये, या फिर उन पर मंगोल वंश की स्थापना हूई । यहाँ तक की तुर्कों की उदयमान शक्ति को भी इससे झटका लगा, जिसका प्रभाव अर्ध-शताब्दी तक रहा ।
जैसा कि यूरोप में हुआ, वैसे ही यूरो-एशिया के सीमांत क्षेत्रों में आक्रमण हूए । चीन को एक से अधिक बार पराधीनता स्वीकार करनी पङी । भारत को अनेक बार उत्तर-पश्चिम से आक्रांताओं का सामना करना पङा । ईरान के प्राचीन शासकों की एक वंशावली का इसमें महत्व है । मंगोलों से तीन-चार शताब्दी पूर्व सेल्जुक तुर्कों ने पाँच सागरों - कैस्पियन, काले, भूमध्य, लाल व ईरान के मध्य की भूमि पर शासन स्थापित किया । उनका शासन करमान, हमदान व गौण एशिया में स्थापित था । उन्होंने बगदाद व दमिश्क से सारसेनों को परास्त कर दिया था । इन शासकों के इसाई मतावलंबियों के साथ जेरूस्लेम में दुर्व्यवहार के विरुद्ध ही इसाई जगत ने धर्म-युद्ध (क्रूसेड्स) का बिगुल बजाया । यद्यपि ये युद्ध अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल रहे, परंतु उन्होंने समूचे यूरोप में ऐसी हलचल मचायी जो कि आधुनिक इतिहास की शुरुआत कही जा सकती है । यह एक और उदाहरण है, जब यूरोप ने एशिया के हृदयस्थल के विरुद्ध अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की हो ।
जिस यूरो-एशिया की हम संकल्पना करते हैं, वह एक निरंतर भूमि है, जहाँ बर्फ आच्छादित उत्तरी भाग, तीन ओर से जल राशि से घिरा हुआ, 21 मिलियन वर्ग मील में फैला हुआ, उत्तरी अमरीका से तीन गुना बङा, जिसका कि केंद्र व उत्तरी भाग 9 मिलियन वर्ग मील बङा, जो कि यूरोप से दुगने से भी बङा है । इस भूभाग की कोई भी जलाकृति सागरों से जाकर नहीं मिलती है । अपितु उत्तरी आर्कटिक के वनों को छोङकर शेष स्थली घुङसवारों व ऊँट कारवाँ के लिए सुगम्य है । इस हृदयस्थल के चहुँओर, पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम में सीमांत क्षेत्र हैं, जो कि अर्ध- चंद्राकार रूप में फैले हुए हैं और जो कि नौ-परिवहन के लिए सुलभ हैं । इनकी भू-आकृति के अनुसार ये चार क्षेत्र हैं । यह कम संयोग नहीं है कि ये क्षेत्र उन चार महान धर्म क्षेत्रों से संयोजित हैं, जो हैं- बौद्ध धर्म, ब्राह्मणवाद, मौहम्मदी एवं इसाईयत । पहले दो धर्मों का स्थान मानसून भूमि पर है, जो कि एक प्रशांत महासागर की ओर आमुख है, दूसरा हिंद महासागर की ओर । चौथा वाला यूरोप में अटलांटिक पवनों द्नारा वर्षित क्षेत्र में है । इन तीनों क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल 7 मिलियन वर्ग मील है, जिनकी जनसंख्या 1 बिलियन है, यानि विश्व की दो तिहाई जनसंख्या । तीसरा धर्म उस क्षेत्र से संबंध रखता है, जो कि 5 सागरों की भूमि के नाम से भी जाना जाता है । इसे निकटवर्ती पूर्व के नाम से भी जाना जाता है । यह आर्द्रता से अफ्रीका द्वारा वंचित है । यह विरल जनसंख्या वाला क्षेत्र है, तथा यहाँ कुछ नख़लिस्तान ही हैं । कुछ मायनों में यह क्षेत्र दोनो ही- सीमांत क्षेत्र तथा यूरो-एशिया की हृदय-स्थली, के चारित्रिक गुणों का समावेश है । यह वन विहीन है, जहाँ मरुस्थल हैं तथा खानाबदोश जातियों के लिए स्वाभाविक विचरण क्षेत्र है । समुद्र खाङी व सागरोन्मुख नदियाँ इसे जलशक्ति प्रदान करती हैं, फिर भी इसका प्रभाव सीमांत है । परिणामस्वरूप, इतिहास में यहाँ ऐसे साम्राज्यों का उदय हुआ, जो कि सीमांत शक्ति थे । जिनका आधार एक तरफ बेबिलोनिया व मिस्र की कृषि आधारित जनसंख्या थी, तो दुसरी तरफ भूमध्य व हिंद सागरीय क्षेत्र से जल-संपर्क था । परंतु जैसा कि इतिहास से विदित है, यह क्षेत्र सदैव ही परिवर्तन के दौर की भेंट चढता रहा है । यह क्रांतिकारी परिवर्तन सीथियन, तुर्की व मंगोल के आक्रमण से पुनर्निर्देशित थे, कभी- 2 ये भूमध्य सागर के जनांक्षाओं का परिणाम भी थे, जो कि पश्चिम से पूर्व तक अंतः स्थलों पर शासन करना चाहते थे । यही स्थान सबसे कमजोर कङी है, जो कि सभ्याओं की परिधि के मध्य विद्यमान है, क्योंकि स्वेज का गौमुख समुद्र शक्ति को दो भाग- पुर्वी व पश्चिमी ताकतों में बाँटता है । ईरान का मरुस्थल जो कि मध्य एशिया से ईरान की खाङी तक फैला है, खानाबदोश जातियों को निरंतर अवसर प्रदान करता है कि वे तट से अंतःस्थल तक आक्रमण कर सकें । जिससे कि भारत व चीन एक तरफ व भूमध्य सागरीय विश्व दूसरी तरफ बँटा हुआ रह सके ।जब भी बेबिलोनिया, सीरिया व मिस्र के मरुद्यान पर शासन कमजोर रहा, स्टेपवासियों ने ईरान व गौण एशिया को अग्रिम चौकी समझा ताकि वे यहाँ से पंजाब, सीरिया होते हुए मिस्र व बोस्फोरस व डारडानल्स के टूटे पुल से हंगरी मे आक्रमण कर सकें । वियना आंतरिक यूरोप के द्वार पर स्थित था, जो कि इन घुमंतुओं के आक्रमण को झेल रहा था । यह आक्रमण दोनों तरफ से था, उत्तर में रूस के स्टेप से व दक्षिण में काले व कैस्पियन सागर से घूम कर आते हुए ।
यहाँ हमने शौरसेनों व तुर्की शासकों के निकटवर्ती पूर्व पर शासन के मध्य मौलिक अंतर की व्याख्या की है । शौरसेन सैमिटिक नस्ल की उपशाखा है, जो कि युफ्रेटस व नील नदी के समीप और निम्नतर एशिया में रहती थी । उन्होंने दो परिवहन के साधन- थल पर घोङे व ऊँट तथा जल में नौका-पोत द्वारा विशाल साम्रज्य की स्थापना की । एक समय में उनके पोत दल भूमध्य में स्पेन तक व हिंद महासागर में मलयद्वीपों तक प्रभावकारी थे । चूँकि उनकी केंद्रीय अवस्थिति पूर्वी व पश्चिमी सागरों के मध्य सामरिक थी, अतः उन्होंने, सिकंदर व नेपोलियन की भाँति, प्राचीन विश्व के सभी सीमांत भूमि प्रदेशों पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया । यहाँ तक कि स्टेपवासियों पर भी खतरा मंडराने लगा । अरब से भिन्न व यूरोप, भारत एवं चीन से भी भिन्न, तूरानी लोग एशिया के हृदयस्थली से आये, ये वे तुर्की लोग थे, जिन्होंने शौरसेनी सभ्यता का अंत किया ।
सागर में नौपरिवहन, महाद्वीप के हृदय में घोङो व ऊँटों द्वारा थलपरिवहन का स्वाभाविक प्रतिद्वंदी है । चीन में यांग्ट्जी, भारत में गंगा, बेबिलोनिया में युफ्रेटस व मिस्र में नील नदियों पर सभ्यता विकास सागरोन्मुख नदियों के नौपरिवहन योग्य अवस्था (पोटेमिक) पर ही आधारित था । इसी प्रकार यूनान व रोम में थालेसिक अवस्था की सभ्यता का विकास भूमध्य क्षेत्र में नौपरिवहन पर टिका हुआ था । शौरसेनों व वाईकिंगों की शक्ति का आधार सागर तटों के नौपरिवहन पर ही आधारित था ।
केप के रास्ते से होते हुए भारत के साथ जलसंपर्क का उद्देश्य यूरो-एशिया के पश्चिमी व पूर्वी जलमार्गों के मध्य संबंध करना था । यद्यपि यह घूमकर आने वाला एक लंबा रास्ता था, फिर भी इसने कुछ मात्रा में स्टेप के घुमंतुओं के सामरिक लाभ उन्हीं के पीछे दबाव बनाकर सीमित कर दिया । कोलंबियाई काल में महान नाविकों ने इसाईजगत की शक्ति को सर्वव्यापी गतिमानता प्रदान की, जो कि वायु गतिमानता से ही पीछे थी । एक निरंतर महासागर जो कि बँटे हुए व अंतःस्थलीय भूमि को चारों ओर से घेरे हुए है, उसकी भौगोलिक नियति यही है कि उसकी एकता पर सागरीय शक्ति का नियंत्रण हो । इसी सिद्धांत के पीछे कप्तान महान व श्रीमान स्पेंसर विल्किसन के सैद्धांतिक व सामरिक विवेचन आधारित हैं । जिसका का मूल राजनैतिक उद्देश्य यूरोप व एशिया के मध्य संबंध को उलटना था, क्योंकि मध्य युग में यूरोप दक्षिण में मरुस्थल रूपी असीम बाधा से, एक अंतहीन महासागर से पश्चिम में, उत्तर व उत्तर-पूर्व में बर्फीले व वनाच्छादित विस्तार से व पूर्व व दक्षिण-पूर्व में घुङसवार व ऊँटसवार की बेहतर गतिमानता से भयभीत रहता था । यही यूरोप अब विश्व पटल पर प्रकट हुआ है, जिसके पास तीस गुना अधिक सागर सतह एवं तटीय भूमि है । यह अब उस यूरो-एशिया की भूमि शक्ति के चारों ओर अपना प्रभाव डाले हुए है, जो कभी उसके अस्तित्व को चुनौती देते थे । इस विशाल जलराशि के मध्य खाली पङी भूमियों पर नये यूरोपों का निर्माण किया जाने लगा, और जो संबंध प्राचीन समय में ब्रिटेन व स्कैण्डिनेविया का यूरोप से था, वही संबंध अमरीका, ऑस्ट्रेलिया व सहारा-पार अफ्रीका का यूरो-एशिया का साथ है । ब्रिटेन, कनाडा, संयुक्त राज्य अमरीका, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया व जापान एक बाह्य परिधि बनाते हैं, जो कि सागर-शक्ति व व्यापार के अक्षुण्ण आधार हैं तथा भूमि-शक्ति की पहुँच से बाहर हैं ।
परंतु भूमि शक्तियाँ, जैसा कि हाल के घटनाक्रमों से विदित है कि एक बार पुनः महत्वपूर्ण हो गई हैं । यद्यपि पश्चिमी यूरोप के जलवर्ती जन-समाजों ने महासागरों को अपने नौसैन्य शक्ति से ढक लिया है, और यहाँ तक कि एशिया महाद्वीप के सीमांत क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया है । रूस ने भी इसके चलते कजाखों को संगठित कर लिया है, तथा अपने उत्तरी वन क्षेत्रों से बाहर आ कर स्टेपी के मैदानों की चौकसी बढा दी है, ताकि तातार घुमंतुओं को रोका जा सके । ट्यूडोर शताब्दी जिसमें कि पश्चिमी यूरोप का महासगरों पर आधिपत्य बढा । उसके साथ ही रूसी शक्ति का विस्तार मॉस्को से साईबेरिया की ओर हुआ । घुङसवारों का पूर्वी एशिया की ओर बढना उतना ही बङा राजनैतिक परिणामों से गर्भित था, जितना कि केप से घूमते हुए होकर जाना, हालाँकि यह दोनो गमन परस्पर असम्बद्ध थे ।
यह एक विचित्र विरोधाभास है कि समुद्र व भूमि से यूरोप के विस्तार की घटना, रोमवासियों व युनानवासियों के मध्य ऐतिहासिक विलोमता के सातत्य का प्रमाण था । इतिहास में शायद ही इतनी बङी परिणामकारक घटना हो, जितनी कि रोम की युनानियों को रोमन संस्कृति में न ढाल पाना । ट्यूटोन को रोमवासियों ने सभ्य बनाया, व उनको इसाई भी बनाया । जबकि युनानियों ने स्लावों को मुख्यधारा में युनानी लाये । यह रोमन-ट्यूटोन ही थे, जो कि बाद में सागरों पर अभियान पर निकले । जबकि यह युनानी-स्लाव थे जिन्होंने स्टेप पर अभियान कर, तूरानियों को परास्त किया । अतः आधुनिक भूमि-शक्ति व सागर-शक्ति के आदर्शों में उतना ही अंतर है, जितना कि उनकी गतिमानता के भौतिक परिस्थितियों में ।
कजाखों की मदद से रूसी उत्तरी वनों में अपने एकांतवास से सफलता पूर्वक बाहर निकल आये । शायद एक परिवर्तन जो कि सर्वाधिक अंतरनिहित महत्व वाला है, वह कि रूसी किसानों ने दक्षिण की ओर प्रवास किया, जिससे कि यूँ तो कृषि समाजों के अधिवास वन सीमा तक ही थे, परंतु यूरोपीय रूस की जनसंख्या का केंद्र उस सीमा के दक्षिण में स्थापित हो गया । यह केंद्र अनाज (गेंहूँ) के उत्पादन केंद्र में स्थापित हो गया, जो कि पश्चिमी स्टेप को हटा कर तैयार किये गये थे । ओडेसा शहर के महत्व में वृद्धि किसी अमरीकी शहर की तरह ही बढी है ।
एक पीढी पहले स्वेज नहर के द्वारा सागर-शक्ति की गतिशीलता में तुलनात्मक रूप से बढोतरी हूई है । रेल-यातायात ने सागरोन्मुख व्यापार की उन्नति को आधार प्रदान किया । परंतु अंतर-महाद्वीप रेल-यातायात भूमि-शक्ति की परिस्थिति में तीव्रता से परिवर्तन ला रही हैं । उनका प्रभाव यूरो-एशिया के हृदय-स्थल में जितना व्यापक है, उतना और कहीं नहीं । ये वे क्षेत्र हैं, जहाँ सङक निर्माण के लिए न तो इमारती लकङी ना हि सुलभ पत्थर उपलब्ध है । रेलवे स्टेप में बेहद क्राँतिकारी सिद्ध हूई है । वह इसलिए क्योंकि उसका घोङो व ऊँटों की गतिशीलता का स्थान ले लेना । अतः सङक की अवस्था का लोपन होना ।
व्यापार के मामले में यह नहीं भूलना चाहिए कि सागरोन्मुख परिवहन चाहे कितना भी सस्ता हो, चार चरण में माल की ढुलाई हो पाती है - उत्पादन कारखाने पर, निर्यात तट पर, आयात तट पर तथा अंतस्थलीय मालखाने पर ताकि खुदरा वितरण हो सके । जबकि महाद्वीपीय रेलवे ट्रक निर्यात करने वाले कारखाने से आयात करने वाले मालघर तक सीधे आजा सकते हैं । अतः सागराधारित सीमांत व्यापार, यदि अन्य सभी समान हों, तो महाद्वीप के चारों ओर आंतरिक प्रवेश्य क्षेत्र का निर्माण करते हैं । जिनकी सीमा उस रेखा द्वारा निर्धारित होती है, जहाँ पर सागर द्वारा माल की ढुलाई व रेलवे द्वारा माल की ढुलाई की लागत को समतुल्य हो । अंग्रेजी व जर्मन कोयले में परस्पर प्रतिस्पर्धा इन्हीं शर्तों पर लुंबार्डी के मध्यमार्ग पर होती है ।
रूसी रेलें 6हजार किलोमीटर निर्बाध रूप से पश्चिम में विर्बालन से पूर्व में व्लादिवोस्तक तक चलती हैं । रूसी सेना की मंगोलिया में उपस्थिति भूमि-शक्ति की गतिशीलता का उतना ही बङा उदाहरण है, जितना कि दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश सेना का जल-शक्ति के रूप में । सत्य है, साईबेरियाई रेल एकमात्र व विकट संपर्क रेखा है, परंतु सदी के बीतते ही एशिया संपूर्ण रेलवे से ढका होगा । रूसी साम्राज्य व मंगोलिया के मध्य स्थान इतना विशाल है, कि उसकी क्षमता जनसंख्या, गेंहूँ, कपास, ईंधन व धातुओं के संबंध में अतुलनीय हैं । यह अवश्यंभावी है कि एक ऐसे आर्थिक जगत की स्थापना व विकास होने होगा जो कि कमोबेश बाहरी सागरीय व्यापार से अछूता रहेगा ।
जिस प्रकार से हम इतिहास की इन वृहद धाराओं को भाँप रहे हैं, क्या यह एक भौगोलिक संबंध के प्रभाव को नहीं दर्शाता है । क्या यह विश्व राजनीति का धुरीय क्षेत्र नहीं है, जो कि यूरो-एशिया का ऐसा भाग है, जो कि जहाजों की पहुँच से परे है । परंतु इतिहास में घुङसवार खानाबदोशों के लिए खुला निमंत्रण था, अब रेलवे के जाल से ढका जाना है । यहाँ सैन्य व आर्थिक शक्ति की गतिशीलता के लिए पहले भी परिस्थितियाँ रही हैं, आज भी हैं, जिनका आयाम सीमित चरित्र का होते हुए भी दूरगामी परिणाम वाला है । रूस मंगोल साम्राज्य का स्थान ले रहा है । उसका प्रभाव फिनलैण्ड, स्कैण्डिनेविया, पोलैण्ड, तुर्की, ईरान, भारत व चीन पर स्टेपवासियों द्वारा किए जाने वाले आक्रमण का स्थान ले रहा है ।एक वृहद रूप में जो स्थान जर्मनी का यूरोप में है, वह स्थान रूस का विश्व पटल पर है । वह चारों दिशाओं में आक्रमण कर सकता है, वह चारों ओर से आक्रमण को न्यौता भी देता है, सिवाय उत्तर दिशा से । उसकी रेल द्वारा गतिशीलता कुछ ही समय की बात है । ना हि ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सामाजिक क्रांति उसके अस्तित्व के भौगोलिक परिधि के साथ मौलिक संबंध को परिवर्तित कर सकता है । अपनी शक्ति की मूलभूत सीमितता को जानते हूए, बङी समझदारी से उसके शासकों ने अलास्का से किनारा कर लिया । जैसा कि यह नियमानुकूल होगा कि रूस सागर पार किसी भी प्रकार का आधिपत्य ना रखे, ठीक वैसे ही जिस प्रकार ब्रिटेन के लिए महासगरों पर सार्वभौम सत्ता रखना ।
धुरी क्षेत्र के बाहर वृहद आंतरिक चंद्राकार के रूप में जर्मनी, ऑस्ट्रिया, तुर्की, भारत व चीन फैले हूए हैं । जबकि बाह्य चंद्राकार के रूप में ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमरीका, कनाडा व जापान फैले हूए हैं । वर्तमान में शक्ति संतुलन की परिस्थिति में रूस परिधिमूलक देशों की शक्ति के समतुल्य नहीं है । अतः फ्राँस में ऐसे बराबरी की संभावना देखने को मिलती है । संयुक्त राज्य अमरीका हाल ही में पूर्वी शक्ति के रूप में उभरा है । पनामा नहर के निर्माण से मिसिसिप्पी व अटलांटिक संसाधनो का प्रयोग वह प्रशांत महासागर में कर सकेगा, अतः वह यूरोपीय संतुलन को अप्रत्यक्ष रूप से रूस द्वारा प्रभावित करता है । इस दृष्टि से पूर्व व पश्चिम के मध्य वास्तविक विभाजन अटलांटिक में पाया जायेगा ।
धुरी-राज्य के हित में शक्ति संतुलन का झुकाव यूरो-एशिया के सीमांत क्षेत्रों में उसके विस्तार के रूप में परिणित होगा । जिसके द्वारा वह वृहद महाद्वीपीय संसाधनों का प्रयोग बेङा-निर्माण में करेगा, जिसके फलस्वरूप एक साम्राज्य विश्वपटल पर दृष्टिगोचर होगा । यह तब संभव है, जबकि जर्मनी व रूस एकजुट हों । ऐसे किसी गठजोङ की संभावना फ्राँस को सागर-पार शक्तियों के साथ संगठित होने के लिए बाध्य करेगी । तब फ्राँस, इटली, मिस्र, भारत व कोरिया ऐसे सेतुमुख का काम करेंगे, जहाँ कि बाहरी नौसेना थलसेनाओं की मदद करेंगी व इसके लिए बाध्य करेंगी कि धुरी संगठित राज्य उनके विरुद्ध थलसेना नियुक्त करें । और इस प्रकार इन राज्यों को नौसेना विस्तार से रोक देंगी । एक छोटे रूप में वेलिंगटन ने प्रायद्वीपीय युद्ध में अपने टॉरस वेड्रास समुद्र-आधार से कुछ ऐसा ही कर दिखाया था । यह संभव है कि अंततोगत्वा भारत ब्रिटेन के औपनिवेशिक तंत्र में इस प्रकार की कोई सामरिक भूमिका न रख सके । क्या यह जनाब एमरी के चिंतन का हिस्सा नहीं है, जो कि ब्रिटेन के सैनिक मोर्चे को केप व भारत से होते हूए जापान तक इस रूप में देखते हैं ।
दक्षिण अमरीका के विशाल संपदा क्षेत्र का विकास इस तंत्र को प्रभावित कर सकते हैं । वे संयुक्त राज्य अमरीका को सशक्त बना सकते हैं । या दूसरी तरफ यदि जर्मनी मूनरो परिपाटी को सफलतापूर्वक चुनौती देता है, तो संभव है कि वे धुरी राज्यों की नीति से अलग हो जायें । जो विशेष शक्ति संयोजन के संतुलन बताए गये हैं वे भौतिक नहीं हैं । मेरा मानना है कि एक भूगोलविद के दृष्टिकोण से उनका नीतिगत परिभ्रमण धुरी-राज्य के इर्दगिर्द ही होता रहेगा । जिसका का प्रभाव निश्चय ही उच्च है, परंतु चारों ओर घिरे हूए सीमांत व अक्षुण्ण राज्यों की तुलना में गतिशीलता सीमित है ।
मैने यहाँ एक भूगोलविद की भूमिका से चर्चा की है । वास्तविक सत्ता संतुलन किसी समय विशेष में दो बातों पर निर्भर करता है, एक तो, भौगोलिक परिस्थितियों पर, आर्थिक व सामरिक, दूसरी ओर सापेक्ष संख्या पर, उर्वरता, साधन व प्रतिस्पर्धी जनसमूहों के संगठन पर । इन मात्राओं के विशुद्ध अनुपात में हम अंतरभेदों के मध्य सामंजस्य बैठाते हैं, बिना किसी युद्धक प्रोत्साहन के । यह भी है कि भौगोलिक मात्राएँ मानव मात्राओं की तुलना में गणनीय हैं । अतः हमें ऐसे किसी सूत्र की खोज करनी चाहिए, जो कि अतीत व वर्तमान राजनीति, दोनों पर समान रूप से लागू हो सके । सामाजिक गतिमानता सभी काल में भौतिक भूआकृतियों के अनुरूप कार्यशील होते रहे हैं । वह इसलिए, क्योंकि मुझे संदेह है कि इतिहास में एशिया व अफ्रीका के विभाजन का मानव पर्यावरण पर गुणात्मक प्रभाव पङा हो । साम्राज्य का पश्चिम की ओर अग्रसर होना धुरी राज्य के दक्षिण-पश्चिम व पश्चिम छोर पर एक लघु परिक्रमण ही था । यह निकटवर्ती, मध्यवर्ती व सुदूर पूर्व के सवाल आंतरिक व बाहरी शक्तियों के मध्य अस्थिर संतुलन, सीमांत क्षेत्र के उस भाग को दर्शाते हैं, जहाँ कि स्थानीय शक्तियाँ या तो कमजोर अथवा नगण्य हैं ।
अंत में समापन में यह सुस्पष्ट करना ठीक रहेगा कि आंतरिक भूभाग पर रूस के स्थान पर कोई दूसरा नियंत्रण धुरी क्षेत्र के भौगोलिक महत्व को कम नहीं करता है । यदि चीनी, जापानियों की मदद से रूसी साम्राज्य को परास्त कर उसके क्षेत्रों पर अधिकार कर लेते हैं, वे हो सकता है कि समूचे विश्व की स्वतंत्रता के लिए पीला ज्वर साबित हों । वह इसलिए क्योंकि इस महान संसाधनयुक्त महाद्वीप को अब तटीय अग्रभाग प्रदान हो जाएगा, एक ऐसा लाभ जो कि रूसी आधिपत्य अभी को वर्जित है ।
[This is Draft Translation, Students and Scholars are advised to consult original English text for authentication]